शक्ति और बल के प्रतीक बलराम जी श्री कृष्ण के बड़े भाई थे बाल्यवस्था से लेकर युवा होने तक ना जाने कितने युद्ध उन्होंने श्रीकृष्ण के साथ मिलकर लड़े कितने ही राक्षसो, दैत्यो एवं पापियों का नाश इन दोनों ने मिलकर ही किया था फिर क्या कारण था जो बलराम जी कुरुक्षेत्र युद्ध में भाग लेने तक नहीं आए, कहां थे वह जब युद्ध चल रहा था आइए विस्तार से जानते हैं कि क्यों बलराम जी श्री कृष्ण का साथ देने नहीं आए।
बलराम कौन थे ?
बलराम शेषनाग के अवतार थे। कंस द्वारा देवकी-वसुदेव के 6 पुत्रो की हत्या कर देने के पश्चात 7वे पुत्र के रूप में देवकी के गर्भ में आये तो श्री हरी के आज्ञा से योगमाया ने उन्हें नंद बाबा के यहां निवास कर रही रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दिया। बलराम के श्री कृष्ण समेत सात भाई और एक बहन सुभद्रा थी जिन्हें चित्रा नाम से भी जाना जाता था। बलराम का विवाह रेवत की पुत्री रेवती के साथ हुआ था।
बलराम को हलधर, हलायुध, संकर्षण, बलभद्र आदि अनके नाम हैं। कृष्ण के बड़े भाई होने के कारण उन्हें ‘दाऊजी’ भी कहा जाता है।
बलराम जी बड़े ही सीधे और शांत स्वभाव के थे कभी-कभी वे श्रीकृष्ण के जटिल तर्कों को समझ नहीं पाते थे लेकिन फिर भी वे सदैव अपने छोटे भाई की हर बात से सहमत रहते थे बलराम जी शीघ्र ही क्रोधित हो जाते थे और शत्रु पर बिना सोचे समझे ही टूट पड़ते थे और वही श्री कृष्ण अधिकतर समय शत्रु की कमजोरी का लाभ उठाकर ही उसका अंत किया करते थे।
बलराम जी भीम और दुर्योधन दोनों के ही गुरु थे हालांकि महाभारत में वर्णित है कि बलराम जी को दुर्योधन अधिक प्रिय थे और वह दुर्योधन को भीम के अपेक्षाकृत अधिक कुशल योद्धा मानते थे क्योंकि भीम का केंद्र सर्वदा शारीरिक बल पर ही रहा और वही दुर्योधन के पास गदा युद्ध में अधिक कौशल था और यही चीज दुर्योधन की बलराम जी को पसंद थी।
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बलराम ने क्यों नहीं लिया महाभारत युद्ध में हिस्सा ?
बलराम जी ने आरंभ से ही एक ऐसी छवि प्रस्तुत की थी कि वह कौरव एवं पांडव पक्षों को समान रूप से देखते हैं और दोनों ही पक्षों को प्रिय है परंतु ऐसा जान नहीं पड़ता था दुर्योधन के इतना अभिमानी होने का कारण जितना कर्ण, भीष्म और द्रोण थे उतने ही बलराम जी भी थे।
श्री कृष्ण का पांडवों के लिए अपार स्नेह था बेशक बलराम जी बोले थे कि उनको कौरवों और पांडवों के समान स्नेह है परंतु समय-समय पर उन्होंने दुर्योधन का अप्रत्यक्ष रूप के साथ दिया था। शायद इसी असमंजश तथा श्री कृष्ण के प्रति उनकी श्रद्धा ने उन्हें युद्ध से दूर रखा।
उद्योग पर्व अध्याय 2 के अनुसार बलराम जी ने विराट सभा में कहा था कि युधिष्ठिर जुए का खेल नहीं जानते थे इसीलिए समस्त सदस्यों ने इन्हें मना किया था दूसरी ओर गांधार राज का पुत्र शकुनी जुए के खेल में निपुण था यह जानते हुए भी उसी के साथ बारंबार खेलते रहे इन्होंने कर्ण और दुर्योधन को छोड़कर शकुनी को ही अपने साथ जुआ खेलने के लिए ललकारा था। इसलिए उस जुए में इनकी हार हुई उन्होंने हटपूर्वक खेल जारी रखा और अपने को हराया इस में शकुनि का कोई अपराध नहीं है।
बलराम जी इस प्रकार कह रहे थे कि सात्यकी सहसा खड़े हो गए उन्होंने कुपित होकर बलराम जी के भाषण की कड़ी आलोचना करते हुए कहा बलराम जी मनुष्य का जैसा हृदय होता है वैसे ही बात उसके मुख से निकलती है आपका भी जैसा अंतकरण है वैसा ही आप भाषण दे रहे हैं।
महात्मा युधिष्ठिर जुआ खेला नहीं चाहते थे तो भी जुए के खेल में निपुण धूर्तो ने उन्हें अपने घर बुलाकर अपने विश्वास के अनुसार हराया अथवा जीता है इनकी धर्म पूर्वक विजय कैसे कही जा सकती है यदि भाइयों सहित अपने घर पर जुआ खेलते हुए थे और ये गौरव वहां जाकर उन्हें हरा देते तो उनकी धर्म पूर्वक विजय कही जा सकती थी परंतु उन्होंने सदा क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहने वाले राजा युधिष्ठिर को बुलाकर छल और कपट से उन्हें पराजित किया है क्या यही उनका परम कल्याण में कर्म कहा जा सकता है।
हमारे व्यक्तिगत विचार में युधिष्ठिर का भी आचरण उनका द्वितकीड़ा में भाग लेना ठीक नहीं था यह परन्तु यह भी सत्य है की दुर्योधन एवं अन्य गौरवो ने उस सभा में जो निंदनीय कार्य द्रौपदी के साथ किया था उसकी बलराम जी ने खुलकर कभी निंदा नहीं की और युधिष्ठिर को ही दोषी माना था।
यहां तक कि उन्होंने इस बात की भी उपेक्षा कर दी थी कि दुर्योधन ने उनके भाई श्री कृष्ण को बंदी बनाने का दुस्साहस किया था बाद में जब दुर्योधन युद्ध में समर्थन हेतु आया था तब वहां श्री कृष्ण ने दुर्योधन से कहा था कि वे नारायणी सेना या मुझ में से किसी एक को चुन लें परंतु मैं ना तो युद्ध करूंगा और ना ही कोई शस्त्र ही धारण करूंगा तब दुर्योधन ने नारायणी सेना को चुना और अर्जुन ने श्रीकृष्ण को।
नारायणी सेना को पाकर और श्री कृष्ण को ठगा गया समझ कर दुर्योधन को बड़ी प्रसन्नता हुई थी और उसके उपरांत बलराम जी के पास गया और उसने उन्हें अपने आने का सारा कारण बताया, तब बलराम जी दुर्योधन से बोले तुम्हारे लिए मैंने श्री कृष्ण को बाध्य करके कहा था कि हमारे साथ दोनों पक्षों का समान रूप से संबंध है।
राजन मैंने यह बात बार-बार दोहराई परन्तु श्री कृष्ण को जची नहीं और मैं श्री कृष्ण को छोड़कर एक क्षण भी अन्यत्र कहीं ठैर नहीं सकता अतः मैं श्री कृष्ण की ओर देखकर मन ही मन यह निश्चय पर पहुंचा हूं कि मैं ना तो अर्जुन की सहायता करूंगा और ना दुर्योधन की हे पुरुष रतन भारत वंश में उत्पन्न हुए हो जाओ क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करो।
बलराम जी के ऐसा कहने पर कुरुक्षेत्र का युद्ध आरंभ होने से पहले भी बलराम जी पांडवों के शिविर में पहुंचे थे उन्हें देखते ही सब ने उठकर बलराम जी का आदर किया और वहां बलराम जी ने भगवान श्रीकृष्ण की ओर देखते हुए कहा
जान पड़ता है यह महा भयंकर और दारू नरसंहार होगा ही प्रारब्ध के इस विधान को मैं अटल मानता हूं अब इसे हटाया नहीं जा सकता इसमें संदेह नहीं है कि यहां महान जन सहार होने वाला है मैंने एकांत में श्रीकृष्ण से बार-बार कहा था कि मधुसूदन अपने सभी संबंधियों के प्रति एक सा बर्ताव करो क्योंकि हमारे लिए जैसे पांडव है वैसे ही राजा दुर्योधन है उसकी भी सहायता करो
परंतु युधिष्ठिर तुम्हारे लिए ही मधुसूदन श्री कृष्ण ने मेरी इस बात को नहीं माना है। ये अर्जुन को देखकर सब प्रकार से उसी पर निछावर हो रहे हैं मेरा निश्चित विश्वास है कि इस युद्ध में पांडवों की अवश्य विजय होगी भारत श्री कृष्ण का भी ऐसा दृढ़ संकल्प है मैं तो श्री कृष्ण के बिना इस संपूर्ण जगत की ओर आंख उठाकर देख भी नहीं सकता है अतः केशव जो कुछ करना चाहते हैं मैं उसी का अनुसरण करता हूं।
बलराम महाभारत युद्ध के समय कहा थे ?
भीमसेन और दुर्योधन की दोनों ही वीर मेरे शिष्य एवं गदा युद्ध में कुशल है अतः मै इन दोनों पर एक सा स्नेह रखता हूं इसलिए मैं सरस्वती नदी के तटवर्ती तीर्थो का दर्शन करने के लिए जाऊंगा क्योंकि मैं नष्ट होते हुए कुरुवंशियों को उस अवस्था में देखकर उनकी उपेक्षा नहीं कर सकूंगा ऐसा कहकर महाबाहु बलराम जी से विदा लेकर मधुसूदन श्री कृष्ण को संतुष्ट कर के तीर्थ यात्रा के लिए चले गए।
बलराम जी बड़े ही विमुड़ प्रवृत्ति के थे एक तरफ जहां उन्होंने स्वयं एक क्षण के रुक्मी का वध भरे दरबार में कर दिया था जो उनके नातेदारी ही थे और वही पांडव कौरवों से युद्ध न करने का उपदेश दे रहे थे जिन्होंने दुर्योधन एवं अन्य कौरवों के हाथों इतना निरादर सहा था और अपना सब कुछ गंवा बैठे थे और एक समय पांडवों की गति देखकर वह इतने क्रोधित हो गए थे की स्वयं हस्तिनापुर पर आक्रमण कर कौरवों को दंडित करना चाहते थे
आप जितना अधिक इनका अध्ययन करेंगे उतना ही इनको समझ पाना कठिन हो जाता है इसके अतिरिक्त बलराम जी का कुरुक्षेत्र युद्ध में भाग न लेने का यह भी कारण हो सकता है कि श्री कृष्ण का पांडवों के लिए अपार स्नेह था बेशक बलराम जी बोले थे कि उनको कौरवों और पांडवों के समान स्नेह है परंतु समय-समय पर उन्होंने दुर्योधन का अप्रत्यक्ष रूप के साथ दिया था। शायद इसी असमंजश तथा श्री कृष्ण के प्रति उनकी श्रद्धा ने उन्हें युद्ध से दूर रखा।
भीम और दुर्योधन के गदा युद्ध के बीच जब आये बलराम
कुरुक्षेत्र युद्ध के अंत में जब भीम ने दुर्योधन को पराजित कर दिया था तो बलराम जी क्रोधित होकर बोले थे श्री कृष्णा राजा दुर्योधन मेरे सामान बलवान था। गधा युद्ध में उसकी समानता करने वाला कोई नहीं था यह अन्याय करके केवल दुर्वोद्धन नहीं गिराया गया है, मेरा भी अपमान किया गया है ऐसा कहकर महाबली बलराम अपना हल उठाकर भीमसेन की ओर दौड़े
उस समय श्री कृष्ण रोश से भरे हुए बलरामजी को शांत करते हुए कहा भैया आप संसार में क्रोध रहित धर्मात्मा और निरंतर धर्म पर अनुग्रह रखने वाले सत पुरुषों के रूप में विख्यात है। अतः शांत हो जाइए क्रोध ना कीजिए समझ लीजिए कि कलयुग आ गया, पांडु पुत्र भीम सेन की प्रतिज्ञा पर भी ध्यान दीजिए।
भगवान श्री कृष्ण से यह विवेचन सुनकर बलराम जी के मन को संतोष नहीं हुआ और भरी सभा में बोले राजा दुर्योधन को अधर्म पूर्वक मारकर पांडु पुत्र भीम सेन इस संसार में कपट पूर्ण युद्ध करने वाले योद्धा के रूप में विख्यात होंगे दुर्योधन सरलता से युद्ध कर रहा था और उसी अवस्था में मारा गया है अतः वो सनातन सतगति को प्राप्त होगा। ऐसा कहकर वे वहां से चले गए यह वृतांत पुनः उनके दुर्योधन के प्रति स्नेह को ही दर्शाता है।
तो आज हमने बात की की बलराम कौन थे, बलराम ने क्यों नहीं लिया महाभारत युद्ध में हिस्सा, महाभारत युद्ध के समय वे कहा थे, क्या हुआ भीम और दुर्योधन के गदा युद्ध के बीच जब आये बलराम।अगर आप को यह जाकारी अच्छी लगी हो या आपका कोई सुझाव हो तो हमें comment करके बताये और इस पोस्ट को अपने मित्रो और प्रियजनों के साथ share करे।