Solah Sanskar: हम सभी यह जानते हैं कि जिसने भी इस धरती पर जन्म लिया है उसकी एक न एक दिन मृत्यु होना निश्चित है लेकिन हिंदू धर्म को मानने वाले लोगों के लिए धर्म ग्रंथों में जन्म से लेकर मृत्यु तक 16 संस्कारों के बारे में बताया गया है।
सोलह संस्कार के नाम इस प्रकार है – गर्भाधान संस्कार, पुंसवन संस्कार, सीमन्तोन्यन संस्कार, जातकर्म संस्कार, नामकरण संस्कार, निष्क्रमण संस्कार, अन्नप्राशन संस्कार, चूड़ाकरण संस्कार, कर्णवेध संस्कार, यज्ञोपवीत संस्कार, वेदारंभ संस्कार, केशांत संस्कार, समावर्तन संस्कार, विवाह संस्कार, वानप्रस्थ संस्कार, अंत्येष्टि संस्कार
ऐसा माना जाता है कि जो मनुष्य इन सोलह संस्कारों को अपने जीवन में पूर्ण नहीं करता उसे पित्र या मातृ ऋण से मुक्ति नहीं मिलती वैसे तो भागवत गीता, गरुड़ पुराण एवं और भी कई ग्रंथों में हिंदू धर्म के 16 संस्कारों का उल्लेख किया गया है परंतु आज हम आपको बताएंगे कि नारद पुराण में सोलह संस्कारों का वर्णन किस प्रकार किया गया है।
तो इस आर्टिकल को ध्यान से पढ़िये क्योंकि आजकल अधिकतर जनमानस अपने धर्म एवं परंपरा को गंभीरता से नहीं लेता और यही कारण है कि इस कलयुग में मनुष्य अपने चरित्र का संपूर्ण निर्माण सही तरीके से नहीं कर पाता है। 16 संस्कारो के बारे में सम्पूर्ण जानकारी
16 संस्कारो के नाम और उनके महत्व (16 Sanskar)
1. गर्भाधान संस्कार
हिंदू धर्म संस्कारों में गर्भाधान संस्कार प्रथम संस्कार है यहीं से शिशु का निर्माण होता है। गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने के पश्चात दंपति युगल को संतान उत्पन्न करने की मान्यता दी गई है इसलिए शास्त्र में कहा गया है कि उत्तम संतान प्राप्त करने के लिए सबसे पहले गर्भाधान संस्कार करना होता है।
पितृ ऋण से उऋण होने के लिए ही संतान उत्पादनार्थ यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार से बीज तथा गर्भ से संबंधित मलिनता आदि दोष दूर हो जाते हैं जिससे उत्तम संतान की प्राप्ति होती है।
गर्भाधान जीव का पहला संस्कार है क्योंकि उस समय ही जीव सर्वप्रथम माता के गर्भ में प्रविष्ट होता है।
श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति के लिए माता-पिता को शारीरिक और मानसिक रूप से अपने आपको तैयार करना होता है क्योंकि आने वाली संतान उनकी ही आत्मा का प्रतिरूप है इसलिए दो पुत्र को आत्मज और पुत्री को आत्मजा कहां जाता है।
2. पुंसवन संस्कार
जीव जब माता के गर्व में आता है तभी से उसका शारीरिक विकास होना प्रारंभ हो जाता है। बालक के शारीरिक विकास अनुकूलता पूर्वक हो इसलिए यह संस्कार किया जाता है।
शास्त्रों में कहां गया है कि गर्भाधान से तीसरे महीने में पुंसवन संस्कार किया जाता है शास्त्र के अनुसार 4 महीने तक गर्भ का लिंग भेद नहीं होता है इसलिए लड़का या लड़की के चिन्ह की उत्पति से पूर्व ही इस संस्कार को किया जाता है। इस संस्कार में औषधि विशेष को गर्भवती स्त्री के नासिका के छिद्र से भीतर पहुंचाया जाता है।
सुश्रुत संहिता के अनुसार जिस समय स्त्री ने गर्भ धारण कर रखा हो उन्हीं दिनों में लक्ष्मण, वटशुंगा, सहदेवी और विश्वदेवा इनमें से किसी एक औषधि को गौ दुग्ध के साथ खूब महीन पीसकर उसकी 3-4 बूंदें उस स्त्री की दाहिनी नासिका के छिद्र में डालें इससे उसे पुत्र की प्राप्ति होगी।
गर्भस्थ शिशु पर माता-पिता के मन और स्वभाव का गहरा प्रभाव पड़ता है अतः माता को मानसिक रूप से गर्भस्थ शिशु की भली प्रकार देखभाल करने योग्य बनाने के लिए इस संस्कार का विशेष महत्व है।
धर्म ग्रंथों में पुंसवन संस्कार करने की दो प्रमुख उदेश्य मिलते हैं। पहला उद्देश्य पुत्र प्राप्ति और दूसरा स्वस्थ सुंदर और गुणवान संतान पाने का है।
पहले उद्देश्य के संदर्भ में स्मृति संग्रह में लिखा है कि इस गर्भ से पुत्र उत्पन्न हो इसलिए पुंसवन संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार का उद्देश्य वलवान, शक्तिशाली, एवं स्वस्थ संतान को जन्म देना है।
इस संस्कार से गर्भस्थ शिशु की रक्षा होती है तथा उसे उत्तम संस्कारों से पूर्ण बनाया जाता है। ईश्वर की कृपा को स्वीकार करने तथा उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए प्रार्थना एवं यज्ञ का कार्य संपन्न किया जाता है साथ यह कामना की जाती है कि वह संपूर्ण होने पर परिपक्य रूप में उत्पन्न होती।
3. सीमन्तोन्यन संस्कार
सीमन्तोन्यन संस्कार हिंदू धर्म के 16 संस्कारों में तृतीय संस्कार है यह संस्कार पुंसवन का ही विस्तार है इसका शाब्दिक अर्थ है – सीमन्त अर्थात केश और उन्यन अर्थात ऊपर उठना।
संस्कार विधि के समय पति अपनी पत्नी के केसों को संभालते हुए ऊपर की ओर उठाता है इसलिए संस्कार का नाम सीमंतोन्यन पड़ गया। इस संस्कार का उद्देश गर्भवती स्त्री को मानसिक बल प्रदान करते हुए सकारात्मक विचारों से पूर्ण रखना है।
शिशु के विकास के साथ माता-पिता के हृदय में नई-नई इच्छाएं पैदा होती हैं शिशु के मानसिक विकास में इन इच्छाओं की पूर्ति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अब वह सब कुछ सुनता और समझता है तथा माता के प्रत्येक सुख दुख का भागी होता है।
अतः छठे एवं आठवे मास में इस संस्कार को अवश्य कर लेना चाहिए ऐसी मान्यता है कि यह संस्कार गर्भपात रोकने के लिए किया जाता है उल्लेखनीय है कि गर्भ में चौथे माह के बाद शिशु के अंग प्रत्यंग ह्रदय आदि बनते हैं और उनमें चेतना आने लगती है जिससे बच्चे में जागृत इच्छाएं माता के हृदय में प्रकट होने लगती हैं।
इस समय गर्भस्थ शिशु शिक्षण योग्य बनने लगता है उसके मन और बुद्धि में नई चेतना जागृत होने लगती है ऐसे में जो प्रभावशाली अच्छे संस्कार डाले जाते हैं उनका शिशु के मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।
इसका उदाहरण महाभारत में भी देखने को मिलता है जब अर्जुन ने अपनी गर्भवती पत्नी सुभद्रा को चक्रव्यूह भेदन की जो शिक्षा दी थी वह सब गर्भस्थ शिशु अभिमन्यु ने सीख ली थी। उसी शिक्षा के आधार पर 16 वर्ष की आयु में ही अभिमन्यु ने अकेले 7 महारथियों से युद्ध का चक्रव्यूह भेदन किया।
4. जातकर्म संस्कार
गर्भस्थ बालक के जन्म होने पर यह संस्कार किया जाता है इस संस्कार में सोने के चम्मच से विसम मात्रा में घृत और मधु घिस करके बालक को चढ़ाया जाता है।
ऐसा माना जाता है कि घृत बुद्धि, स्मृति, प्रज्ञा, अग्नि, आयु, वीर्य, आंखों की रोशनी बालक वृद्धि के के लिए सुकुमारता और स्वर की शक्ति को बढ़ाता है। यह न-न योजनाओं से हजार काम करता है जिस प्रकार कमल के पत्ते पर पानी नहीं लगता वैसे ही स्वर्ण खाने वाले शरीर को विष प्रभावित नहीं करता।
इससे माता के गर्भ में जो रस पीने का दोष है वह दूर हो जाता है और बालक की आयु तथा मेधा शक्ति को बढ़ाने वाली औषधि बन जाता है यह बात दोष को भी दूर करता है साथ ही मूत्र को भी स्वच्छ बना देता है और रक्त के उर्धगामी दोष को भी दूर कर देता है।
मधु लाला आयी लार का भी संचार करता है इतना ही नहीं इस संस्कार में बच्चों के शरीर पर उपटन लगाया जाता है परंतु आजकल उप्टन की जगह साबुन का इस्तेमाल किया जाने लगा है लेकिन शास्त्रों की मानें तो साबुन से उपटन सही है।
5. नामकरण संस्कार
जातकर्म संस्कार के बाद हिंदू धर्म में पंचम संस्कार नामकरण संस्कार किया जाता है यह संस्कार बालक के जन्म होने के 11वे दिन में कर लेना चाहिए इसका कारण यह है कि पराशरस्मृतिः के अनुसार ब्राह्मण 10 दिन में, क्षत्रिय 12 में, वैश्य 15 दिन में, और शूद्र 1 मास में शुद्ध होता है
अतः निर्धारित समय पर ही नामकरण संस्कार करना चाहिए क्योंकि नाम के साथ मनुष्य का घनिष्ठ संबंध रहता है।
नाम प्रायः दो होते हैं एक गुप्त नाम दूसरा प्रचलित नाम गुप्त नाम माता पिता को छोड़कर अन्य किसी को मालूम ना हो इससे उसके प्रति किया गया मारण, उच्चाटन, तथा मोहन आधी अभिचार कर्म सफल नहीं हो पाता है।
नक्षत्र या राशियों के अनुसार नाम रखने से लाभ यह है कि इससे जन्मकुंडली बनाने में आसानी रहती है नाम भी बहुत सुंदर और अर्थपूर्ण रखना चाहिए अशुभ तथा भद्दा नाम कदापि नहीं रखना चाहिए।
ऐसा माना जाता है कि नामकरण संस्कार से आयु तथा तेज की होती है एवं लौकिक व्यवहार में नाम की प्रसिद्ध व्यक्ति का अलग अस्तित्व बनता है। इस संस्कार में बच्चे को शहद चटाकर शालीनता पूर्वक मधुर भाषण कर सूर्य दर्शन कराया जाता है और कामना की जाती है कि बच्चा सूर्य की प्रखरता तेजस्विता धारण करें।
इसके साथ ही भूमि को नमन कर देव संस्कृति के प्रति श्रद्धा पूर्वक समर्पण किया जाता है शिशु का नाम लेकर सबके के द्वारा उसके चिरंजीवी, धर्मशील, स्वस्थ, एवं समृद्ध होने की कामना की जाती है।
वाल्मीकि रामायण में वर्णित है कि श्री राम आदि चार भाइयों का नाम करण महर्षि गर्ग द्वारा उनके गुण धर्मो के आधार पर करने का उल्लेख है।
6. निष्क्रमण संस्कार
इसमें शिशु को घर के भीतर से बाहर निकालकर सूर्य का दर्शन कराया जाता है ऐसा माना जाता है कि बच्चे के पैदा होते ही उसे सूर्य के प्रकाश में नहीं लाना चाहिए इससे बच्चे की आंखों पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है इसलिए जब बालक की आंखे तथा शरीर जब कुछ पुष्ट बन जाए तब इस संस्कार को करना चाहिए।
अर्थात जन्म के चौथे माह निष्क्रमण संस्कार करना चाहिए चार मास के बच्चे का ज्ञान और कर्म इंद्रियां सशक्त होकर धूप, वायु आदि को सहने के योग्य बन जाती हैं। सूर्य तथा चंद्र आदि देवताओं की पूजा करके संतान को सूर्य, चंद्र आदि देवताओ के दर्शन कराना इस संस्कार की मुख्य प्रक्रिया है।
चूकी बच्चे का शरीर पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश से बनता है इसलिए बच्चे के कल्याण की कामना करते हुए रहता है।
7. अन्नप्राशन संस्कार
इस संस्कार में बालक को अन्य ग्रहण कराया जाता है अब तक तो शिशु माता का दुग्ध-पान करके ही वृद्धि को प्राप्त होता था अब आगे स्वयं अन्य ग्रहण करके ही शरीर को पोस्ट करना होगा क्योंकि प्राकृतिक नियम सबके लिए यही है।
अब बालक को परालम्बी ना रहकर धीरे-धीरे स्वाबलंबी बनना पड़ेगा केवल यही नहीं आगे चलकर अपना तथा अपने परिवार के सदस्यों के वी भरण पोषण का दायित्व संभाला होगा यही संस्कार का तात्पर्य है।
छठे माह में बालक का अन्नप्राशन संस्कार किया जाता है शास्त्रों में अन्न को प्राणियों का प्राण कहा गया है। गीता में कहा गया कि अन्न से ही प्राणी जीवित रहते हैं ऐसे ही मन बनता है इसलिए अन्य का जीवन में सर्वाधिक महत्व है।
माता के गर्भ में मलिन भोजन के जो दोष शिशु में आ जाते हैं उनके निवारण और शिशु को शुद्ध भोजन कराने की प्रक्रिया को अन्नप्राशन कहा जाता है। शुद्ध आहार करने से शरीर में सत्वगुण की वृद्धि होती है।
अन्न से केवल शरीर का पोषण ही नहीं होता अपितु मन, बुद्धि, तेज, वा आत्मा का भी पोषण होता है इसी कारण अन्नप्राशन को संस्कार रूप में स्वीकार करके शुद्ध सात्विक व पौष्टिक अन्न को ही जीवन में लेने का व्रत करने हेतु अन्नप्राशन संस्कार संपन्न किया जाता है।
इस संदर्भ में महाभारत में एक रोचक कथा आती है सरसैया पर पड़े भीष्म पितामह पांडवों को कोई उपदेश दे रहे थे कि अचानक द्रौपदी को हंसी आ गई। द्रौपदी के इस व्यवहार से पितामह को बड़ा आश्चर्य हुआ उन्होंने द्रौपदी से हसने का कारण पूछा द्रौपदी ने विनम्रता से कहाँ आप के उपदेशों में धर्म का मर्म छिपा है पितामह आप हमें कितने अच्छी अच्छी ज्ञान की बातें बता रहे हैं।
यह सब सुनकर मुझे कौरवो की उस सभा की याद हो आई जिसमें वे मेरे वस्त्र उतारने का प्रयास कर रहे थे। तब मै चीख-चीख कर न्याय की भीख मांग रही थी लकिन आप वहां पर होने के बाद भी मौन रहकर उन अधर्मियों का प्रतिवाद नहीं कर रहे थे आप जैसे धर्मात्मा उस समय चुप क्यों थे दुर्योधन को क्यों नहीं समझाया यही सोच कर मुझे हंसी आ गई।
इस पर भीष्म पितामाह गंभीर होकर बोले बेटी उस समय मै दुर्योधन का अन्न खाता उसी से मेरा रक्त बनता था जैसा कुत्सित स्वाभाव दुर्योधन का है वही असर उसका दिया अन्न खाने से मेरे मन और बुद्धि पर पड़ा किन्तु अब अर्जुन के बड़ो में पाप के अन्न से बने रक्त को मेरे तन से बाहर निकाल दिया है और मेरी भावनाएं शुद्ध हो गई है इसलिए मैं वही कर रहा हूं जो धर्म के अनुकूल है।
अन्नप्राशन का उद्देश्य बालक को तेजस्वी, बलशाली, एवं मेधावी बनाना है इसलिए बालक को घृत युक्त भात या दही, शहद, घृत तीनों को मिलाकर अन्नप्राशन करने का विधान है।
छह माह बाद बालक हल्के अन्य पचाने में समर्थ हो जाता है अतः अन्नप्राशन संस्कार छठे माह में ही करना चाहिए।शास्त्रों में देवों को खाद्य पदार्थ निवेदित कर के अन्य खिलाने का विधान बताया गया है इस संस्कार में शुभ मुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के पश्चात माता-पिता चांदी के चम्मच से खीर आदि पवित्र और पुष्टि कारक अन्य शिशु को चलाते हैं।
8. चूड़ाकरण संस्कार
हिंदू धर्म चूड़ाकरण संस्कार अष्टम संस्कार है अन्नप्राशन संस्कार करने के पश्चात चूड़ाकरण संस्कार करने का विधान है यह संस्कार पहले या तीसरे वर्ष में कर लेना चाहिए मनुस्मृति के कथा अनुसार द्वी जातियों का पहले या तीसरे वर्ष में मुंडन कराना चाहिए ऐसा वेद का आदेश है।
इसका कारण यह है कि माता के गर्भ से आए हुए सिर के बाल अर्थात अशुद्ध होते हैं दूसरी बात वे झड़ते भी रहते हैं जिससे शिशु की तेज वृद्धि नहीं हो पाती इन केशो को मुंडवाकर शिशु की शिखा रखी जाती है।
शिखा से आयु और तेज की वृद्धि होती है बालक का कपार लगभग 3 वर्ष की अवस्था तक कोमल रहता है तत्पश्चात धीरे-धीरे कठोर होने लगता है गर्भावस्था में ही उसके सिर पर हुए बालों के रोम छिद्र इस अवस्था तक कुछ बंद से हो गए रहते हैं।
अतः इस अवस्था में शिशु के बालों को साफ कर देने पर सिर की गंदगी, कीटाणु आदि तो दूर हो ही जाते हैं। मुंडन करने पर बालों के रोम छिद्र भी खुल जाते हैं इससे नए बाल घने, मजबूत, वा स्वच्छ होकर निकलते हैं।
सिर पर घने, मजबूत, और स्वच्छ वालों का होना मस्तिष्क की सुरक्षा के लिए आवश्यक है अतः यु कहे की सिर के बाल सिर के रक्षक हैं तो गलत ना होगा इसलिए चूड़ाकर्म एक संस्कार के रूप में किया जाता है।
अतः इसे किसी देव या तीर्थ स्थान पर इसलिए कराया जाता है ताकि वहां के दिव्य वातावरण का भी लाभ शिशु को मिले तथा उतारे गए बालों के साथ बच्चे के मन में शुसंस्कारों की स्थापना हो सके।
9. कर्णवेध संस्कार
यह संस्कार श्रवण शक्ति में वृद्धि कर्ण में आभूषण पहनने तथा स्वास्थ्य रक्षा के लिए किया जाता है विशेषकर कन्याओं के लिए तो कर्णवेध नितांत आवश्यक माना गया है इसमें दोनों कानों को भेद करके उसकी नस को ठीक करने के लिए उसमें स्वर्ण कुंडल धारण कराया जाता है।
इससे शारीरिक लाभ होता है यह संस्कार उपनयन संस्कार के पहले ही कर देना चाहिए इस संस्कार को छह माह से लेकर सोलवे माह तक 3, 5 आदि विषम वर्षों में या कुल की परंपरा के अनुसार उचित आयु में किया जाता है इससे स्त्री पुरुष में पूर्ण स्त्रीत्व और पुरुषत्व की प्राप्ति के उद्देश्य से कराया जाता है।
मान्यता है कि सूर्य की किरणें कानों के चित्र से प्रवेश पाकर बालक बालिका को तेज संपन्न बनाती हैं बालिकाओं के आभूषण धारण हेतु तथा रोगों से बचाव हेतु यह संस्कार आधुनिक एक्यूपंक्चर पद्धति के अनुरूप एक सशक्त माध्यम भी है।
हमारे शास्त्रों में कर्ण भेद रहित पुरुष को श्राद्ध का अधिकारी नहीं माना गया है ब्राह्मण और वैश्य का करणवीर चांदी की सुई से, सूद्र की लोहे की सुई से तथा क्षत्रिय और संपन्न पुरुषों का सोने की सुई से करने का विधान है। इसके अलावा कर्णवेध साही के कांटे से भी करने का विधान है।
10. यज्ञोपवीत संस्कार
यज्ञोपवीत संस्कार को उपनयन या जनेऊ संस्कार भी कहते हैं प्रत्येक हिंदू को यह संस्कार कराना चाहिए। उप यानी पास नयन यानी ले जाना अर्थात गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार।
आज भी यह परंपरा है जनेऊ यानी यज्ञोपवीत में तीन सूत्र होते हैं यह तीन देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतिक है। इस संस्कार से शिशु को बल, ऊर्जा और ततेज प्राप्त होता है साथ ही उसमें आध्यात्मिक भाव जागृत होता है।
11. वेदारंभ संस्कार
यह संस्कार ज्ञानार्जन से संबंधित है शास्त्रों में ज्ञान को सर्वोपरि माना गया है प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यगोपवित के बाद बालको को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिए योग्य आचार्यों के पास भेजा जाता था।
12. केशांत संस्कार
केशांत का अर्थ है – बालों का अंत करना यानी मुंडन करना विद्या अध्ययन से पहले भी मुंडन किया जाता है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें।
प्राचीनकाल में गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति कर के वापस लौटे में भी केशांत संस्कार किया जाता था।
13. समावर्तन संस्कार
समावर्तन संस्कार का अर्थ है फिर से वापस लौटना आश्रम या गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद व्यक्ति को फिर से समाज में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था।
इसका आशय है ब्रह्मचारी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार किया जाना।
14. विवाह संस्कार
उचित उम्र में विवाह करना जरूरी है विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है इसके अंतरगत वर और वधू दोनों साथ रहकर धर्म के पालन का संकप लेते हुए विवाह करते हैं।
विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान ही नहीं दिया जाता बल्कि व्यक्ति के आध्यात्मिक और मानसिक विकास के लिए भी जरूरी है इसी संस्कार से व्यक्ति पितृ ऋण से भी मुक्त होता है।
15. वानप्रस्थ संस्कार
पुत्र का पुत्र अर्थात पौत्र का मुख देख लेने के बाद मनुष्य पितृ ऋण से मुक्त हो जाता है यदि घर छोड़ने की संभावना ना हो तो घर का दाइत्व जेष्ठ पुत्र को सौंप कर अपने जीवन को आध्यात्मिक जीवन में परिवर्तित कर लेना ही वानप्रस्थ संस्कार माना जाता है।
शास्त्रों में भी कहाँ गया है कि ग्रहस्त के बाद वानप्रस्थ ग्रहण कर लेना चाहिए इससे सारे मनोविकार दूर हो जाते हैं और मन में निर्मलता आती है जो सन्यास के लिए आवश्यक है।
16. अंत्येष्टि संस्कार
हिंदुओं में किसी की मृत्यु हो जाने पर उसके मृत शरीर को वेदोक्त रीति से चिता में जलाने की प्रक्रिया को अंत्येष्टि क्रिया या अंत्येष्टि संस्कार कहा जाता है।
हिन्दू मान्यता के अनुसार यह 16 संस्कारो में से अंतिम संस्कार है।
इतना ही नहीं धर्म ग्रंथों में ऐसा भी बताया गया है कि जो मनुष्य इन 16 संस्कारों में से किसी एक भी संस्कार को पूरा नहीं करता उसे मृत्यु के पश्चात मोक्ष प्राप्ति के लिए काफी कष्ट सहना पड़ता है इसलिए मनुष्य को चाहिए की वह जितना संभव हो सके उतना इन संस्कारों का पालन करें।
तो ये थी जानकारी की 16 संस्कार कौन-कौन है और इन्हे क्यों करना चाहिए, इन्हे करने से मनुष्य के जीवन में इनका क्या महत्व है। अगर आपको यह जानकारी अच्छी और उपयोगी लगी हो तो इसे अपने मित्रो और प्रियजनों के साथ अवश्य शेयर करे, साथ ही हमें कमेन्ट के माध्यम से भी बता सकते है।