अंतिम संस्कार विधि | हिंदू धर्म में शव दाह और अंतिम संस्कार के प्राचीन नियम

आज हम जानेंगे अंतिम संस्कार के प्राचीन नियम, दाह संस्कार विधि, गरुड़ पुराण के अनुसार दाह संस्कार के नियम क्योकि जैसा की हम सभी जानते है कि हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद मृतक का अंतिम संस्कार किया जाता है अर्थात मृत शरीर को अग्नि में जला दिया जाता है परंतु बहुत कम लोग ही यह जानते है कि मृत शरीर को शमशान ले जाने और उसे अग्नि में जलने तक कई विधियों का पालन करना होता है जिसका वर्णन गरुड़ पुराण में विस्तार पूर्वक किया गया है। 

गरुण पुराण के अनुसार इस संसार में सभी मनुष्य पूर्वअर्जित, शुक्रित और दुष्कृत कर्मों का फल भोग कर अपने कर्म के अनुसार ही किसी योनि में जन्म लेता है और उसके बाद उस जन्म में अपने द्वारा किए गए कर्मों के आधार पर उसके शरीर में कोई रोग उत्पन्न होता है। जिसकी जिस निमित्त से मृत्यु निश्चित है वह निमित्त किए गए कर्मों के अनुसार उसे अवश्य प्राप्त हो जाता है।शव का दाह संस्कार कैसे करे

शव का दाह संस्कार कैसे करे (अंतिम संस्कार विधि)

जीवात्मा कर्मभोग के कारण जब अपने वर्तमान शरीर का परित्याग करता है, परिजनों को चाहिए कि वह भूमि को गोबर से लिप का उसके ऊपर तेल और कुशासन बिछाकर उसी पर मृतक के शव को लेटा दे। 

तदनन्तर उस प्राणी के मुख में स्वर्ण डालें और उसके समीप तुलसी का वृक्ष एवं शालिग्राम शिला को भी लेकर रखे।

तत्पश्चात यथा विधान विभिन्न सुतर्को का पाठ करें क्योंकि ऐसा करने से मनुष्य की मृत्यु मुक्तिदाई होती है। 

उसके बाद मरे हुए प्राणी के शरीर के विभिन्न स्थानों में सोने की शलाखाओ को रखने का विधान है जिसके अनुसार क्रमशः एक शलाखा मुख, एक-एक शलाखा नाक के दोनों छिद्र, दो-दो शालाखाये नेत्र और कान, एक शालाखा  लिंग तथा एक शलाका उसके ब्रह्मांड में रखनी चाहिए।

दाह संस्कार विधि | मृत्यु के बाद शव का दाह संस्कार कैसे करे

उसके दोनों हाथ एवं कष्ट भाग में तुलसी रखें इसके बाद मृतक के शव को दो वस्तुओं से ढक कर कुमकुम और अक्षत से पूजन करना चाहिए। 

तदनंतर उसको पुष्पों की माला से विभूषित करके उसे बंधु बांधवो तथा पुत्र पुरवासियों के साथ अन्य द्वार से ले जाए। उस समय अपने बांधवो के साथ पुत्र को मरे हुए पिता के शव को कंधे पर रखकर स्वयं ले जाना चाहिए। 

जिस स्थान में मनुष्य मरता है उस स्थान पर मृतक के नाम से शव नाम का पिंड दिया जाता है। उस पिंडदान को देने से ग्रह के वास्तु देवता प्रसन्न हो जाते हैं और उससे भूमि तथा भूमि के अधिष्ठात्री देवता प्रसन्न होते हैं। 

द्वार पर जो दूसरा पिंड दान दिया जाता है उसका नाम पांथ है उसे देने से द्वारा स्थित ग्रह देवता प्रसन्न होते हैं। 

चौराहे पर खेचर नामक पिंडदान होता है इस पिंडदान को देने से भूत आदि देवयोनियाँ बाधा नहीं करती। 

विश्राम स्थल पर होने वाला पिंडदान भूत संज्ञक है उसको देने से पिशाच, राक्षस और यक्ष आदि जो अन्य दिगवाशी योनियाँ है वो जलाये जाने योग्य उस मृतक शरीर को अयोग्य नहीं बनाती। 

चिता स्थल पर पिंडदान देने से प्रेतत्व की उत्पत्ति होती है एकमत पर चिता में दिए जाने वाले पिंडदान का नाम साधक है और प्रेतकल्प के विद्वानों ने इशरत के नाम से अभिहित किया है। 

चिता में पिंड दान देना चाहिए इस प्रकार इन पांचों समिति के योग्य होता है अन्यथा पूर्व उप घातक होते हैं। 

प्राणोत्क्रमण के स्थान पर पहला पिंडदान देना चाहिए, उसके बाद दूसरा पिंडदान आधे मार्ग में, और तीसरा चिता पर देना चाहिए। 

पहले पेंट में विधाता, दूसरे में गरुड़ध्वज तथा तीसरे में यमदूत इस प्रकार का प्रयोग कहा गया है। तीसरा पिंड दान देते ही मृत व्यक्ति शरीर के दोषों से मुक्त हो जाता है। 

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उसके बाद चिता प्रज्ज्वलित करने के लिए बेदी का निर्माण करके उसका उल्लेखन, उद्धरण, और अभियूक्क्षण  आदि करके विधि पूर्वक अग्नि स्थापन करके पुष्प और अक्षत से क्रव्याध नामक के अग्नि देव की पूजा करके प्रार्थना करनी चाहिए। 

हे! क्रव्याध अग्निदेव आप महा भूतत्वों से बने हुए इस जगत के कारण पालनहार एवं संघारक है अतः इस मृत व्यक्ति को आप स्वर्ग पहुंचाऐ। इस प्रकार क्रव्याध नामक अग्निदेव की विधिवत पूजा करके शव को जलाने का कार्य करें। 

मृतक का आधा शरीर जल जाने पर घृत की आहुती देनी चाहिए लोमाभ्यः स्वाहा इस मंत्र से यथा विधी होम करना चाहिए। 

चिता पर उस प्रेत को रखकर अज्य आहुति देनी चाहिए। यमंतक, मृत्यु, ब्रम्हा, जातवेदस के नाम से आहुति देकर एक आहुति प्रेत के मुख पर दे। 

सबसे पहले अभी को ऊपर की ओर प्रज्वलित करें तदनंतर चिता के पूर्व भाग को उसी अग्नि से जलाएं। इस प्रकार चिता को जलाकर कहे “हे अग्निदेव आप इससे उत्पन्न हुए हैं पुनः आपसे यह उत्पन्न हुआ है इस मृतक की स्वर्ग कामना के लिए आप के निमित्त यह स्वाहा है”। 

इस प्रकार तिल मिश्रित समंत्रक अज्य आहुति देकर पुत्र को दाह करना चाहिए उस समय उसे तेज रोदन करना चाहिए ऐसा करने से मृतक को सुख प्राप्त होता है। 

दाह संस्कार वहीं पर अस्थि संचयन करना चाहिए उसके बाद प्रेत के शांति के लिए पिंडदान दे। 

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दाह संस्कार के पश्चात मृत व्यक्ति के पुत्रों को वस्त्र के सहित रुदन करना चाहिए। तदनंतर नाम गोत्रोचार करते हुए वे तिलांजलि दे। उसके बाद गांव, जनपद के सभी लोग ताली बजा बजाकर विष्णु नाम संकीर्तन और मृतक के गुणों की चर्चा करें। 

सभी लोग उस मृत व्यक्ति के घर आकर द्वार के दक्षिण भाग में गोमय और श्वेत सरसो को रखें और अपने मन में वरुण देव ध्यान कर नीम की पत्तियों का भक्षण तथा घी का प्राशन करके वे सभी अपने अपने घर जाएं। 

कुछ लोग चिता स्थान को दूध से सींचते हैं। मृतक को तिलांजलि देते हुए अश्रुपात नहीं करना चाहिए। बंधु बांधवो के जो उस समय रट हुए मुंह से कफ और नेत्रों से आंसू गिराया जाता है उसको ही वो प्रेत विवश होकर खाता है अतः उन सभी को उस समय रोना नहीं चाहिए अपनी शक्ति के अनुसार क्रिया करनी चाहिए। 

सूर्य के अस्त हो जाने के बाद घर के बाहर अथवा कहीं एकांत में चौराहे पर दाह  क्रिया के दिन से लेकर 3 दिन तक मिट्टी के पात्र में दूध और जल देना चाहिए क्योंकि मरने के बाद जो मूड ह्रदय जीवात्मा है शरीर को प्राप्त करने की इच्छा से यमदूतो के पीछे-पीछे शमशान, चौराहा, तथा घर का दर्शन करता हुआ यमलोक को जाता है। 

प्रतिदिन दशः तथा प्रेत के लिए पिंडदान और जलांजलि देनी चाहिए जब तक दशः संस्कार ना हो जाए तब तक एक जलांजलि प्रतिदिन बढ़ाना अनिवार्य है। 

संस्कार पुत्र के द्वारा अपेक्षित है पुत्र उसके अभाव में पत्नी को करना चाहिए ना होने पर शिष्य उसके ना होने पर भी कर सकता है 

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श्मशान अथवा किसी तीर्थ में मृतक के लिए जल और पिंडदान देना चाहिए। 

पहले दिन शाग, मूल और फल, भात या सत्तू आदि में से जिस किसी द्वारा पिंड दान दिया जाए उसी के द्वारा बाद के दिनों में भी दान देना चाहिए। 

10 दिनों तक प्रेत के उद्देश्य से पुत्रगण पिंडदान देते है दिए गए पिंड का प्रतिदिन चार भाग हो हो जाता है उसके दो भाग से शरीर बनता है तीसरा भाग यमदूत ले लेते हैं और चौथा भाग मृतक को खाने को मिलता है। 9 दिन-रात में प्रेत पुनः शरीर युक्त हो जाता है शरीर बन जाने से 10वें दिन प्राणी को अत्यधिक भूख लगती है। 

श्मशान पहुंचकर पुत्र पूर्वाविमुख या उत्तराविमुख वह की उस भूमि का निर्माण कराया जो पहले से जली न हो उस चिता में चन्दन, तुलसी और पलाश आदि की लकड़ी का प्रयोग करना चाहिए। 

फिर मटकी में जल लेकर चिता की परिक्रमा करनी चाहिए और उसके बाद पुत्र या स्वजन द्वारा मुखाग्नि देनी चाहिए। 

इसके साथ ही कपाल क्रिया करना भी जरूरी होता है अतः शव के जलने का अंतिम समय आए तो उसके सर वाले पर तीन बार डंडे से प्रहार करना चाहिए और जब शव पूरी तरह जाए तो सभी परिजनों को उस जगह से चले जाना चाहिए और जाते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि कोई पीछे मुड़कर ना देखे।

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