परशुराम जी भगवान विष्णु के छठे आंशिक अवतार हैं इनका जन्म इस मन्वंतर यानी के व्यवस्थ मन्वंतर के 19वें त्रेता युग में हुआ था। उनका वास्तविक नाम रामभद्र था, किंतु परशु धारण करने से वे परशुराम जी कहे जाने लगे। आज हम जानेंगे परशुराम की जीवनी के बारे में की वे कितने शक्तिशाली थे, कौन से अस्त्र-शस्त्र थे उनके पास, क्या भूमिका थी उनकी हमारे सनातन इतिहास में।
भगवान परशुराम के भारत में कई जगहों पर मंदिर हैं। परशुराम मंदिर आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, राजस्थान, महाराष्ट्र, हिमांचल प्रदेश और मध्य प्रदेश के इंदौर स्थित जाना पॉव पर जिस जगह को उनका जन्म स्थल भी माना गया है।
परशुराम कौन थे ?
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तदोपरांत एक समय रिचिक ऋषि ने संतान की कामना से सत्यवती के लिए चरु तैयार किया और उसी के द्वारा प्रसन्न किए जाने पर एक क्षत्रिय श्रेष्ठ पुत्र की उत्पत्ति के लिए एक और चरु उसके माता के लिए भी बनाया पर माता के कहने पर सत्यवती ने अपनी माता के लिए बनाए गए चरु का उपयोग कर लिया।
जब इस बात का ज्ञान रिचिक ऋषि को हुआ तो वह क्रोधित हो उठे और बोले मैंने तेरे चरु में शांति, ज्ञान और तृतीक्षा आदि संपूर्ण ब्राह्मणोचित गुणों का समावेश किया था और तुम्हारी माता के चरु में संपूर्ण ऐश्वर्या, पराक्रम, शूरता और बल की संपत्ति का आरोपण किया था। उनका विपरीत करने से तेरे भयानक अस्त्र-शस्त्र धारी क्षत्रिय के समान आचरण करने वाला पुत्र होगा।
यह सुनते ही सत्यवती ने उनके चरण पकड़ लिए और कहा भगवन अज्ञानवश मैने ऐसा किया है अतः प्रसन्न होइये और ऐसा कीजिए जिससे मेरा पुत्र ऐसा ना हो भले ही पौत्र ऐसा हो जाए। इस पर मुनि ने कहा ऐसा ही हो फिर उसने जमदग्नि को जन्म दिया और उसकी माता ने विश्वामित्र को उत्पन्न किया।
ऋषि जमदग्नि का विवाह इश्वाकु कुल की रेणुका से हुआ था। उनके 5 पुत्र हुए रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्वानस और परशुराम। जिनमें सबसे छोटे थे परशुराम जी। उनका वास्तविक नाम रामभद्र था।
भगवान परशुराम जी का जन्म वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन मध्यप्रदेश के इन्दौर जिला में ग्राम मानपुर के जानापाव पर्वत में हुआ।
परशुराम ने क्यों किया अपनी माता का वध
एक समय परशुराम जी की माता रेणुका राजा चित्ररथ पर कुछ पल के लिए मोहित हो गई थी जिसका ज्ञान ऋषि जमदग्नि को रेणुका को देखते ही हो गया था और महर्षि ने धिक्कार पूर्ण वचनों द्वारा उसकी निंदा की।
उस समय परशुराम जी को छोड़कर उनके चार पुत्र वहा उपस्थित थे जमदग्नि जी ने बारी बारी से सभी पुत्रों को यह आज्ञा दी कि तुम अपनी माता का वध कर डालो परंतु मात्र स्नेह उमड़ आने से वे कुछ भी बोल ना सके बेहोश से खड़े रहे, तब महर्षि से कुपित हो उन सब पुत्रो को श्राप दे दिया श्राप ग्रस्त होने पर वे अपनी चेतना खो बैठे और तुरंत मृग एवं पक्षियों के समान जड़ बुद्धि हो गए।
फिर परशुराम जी सबसे पीछे आश्रम पर आए उस समय ऋषि जमदग्नि ने उनसे कहा बेटा अपनी इस पापिनी माता को अभी मार डालो और इसके लिए मन में किसी प्रकार का खेद न करो तब परशुराम जी ने फरसा लेकर उसी क्षण माता का मस्तक काट डाला।
इससे महात्मा जमदग्नि का क्रोध शांत हो गया और उन्होंने प्रसन्न होकर कहा तात तुमने मेरे कहने पर यह कार्य किया है जिसे करना दूसरों के लिए बहुत कठिन है तुम धर्म के ज्ञाता हो तुम्हारे मन में जो जो कामनाये हो उन सबको मांग लो।
तब परशुराम जी ने कहा पिताजी मेरी माता जीवित हो उठे उन्हें मेरे द्वारा मारे जाने की बात याद ना रहे मानस पाप उनका स्पर्श भी ना कर सके, मेरे चारों भाई स्वस्थ हो जाएं युद्ध में मेरा सामना करने वाला कोई ना हो और मैं बड़ी आयु प्राप्त करूं। महा तेजस्वी जमदग्नि ने वरदान देकर उनकी वे सभी कामनाएं पूर्ण कर दी।
परशुराम जी को फरसा और अन्य दिव्य अस्त्र शस्त्र कैसे मिले ?
आगे बढ़ने से पहले जानते हैं की परशुराम जी का दिव्य अस्त्र शस्त्र में फरसा प्रमुखता था कैसे प्राप्त हुए ब्रह्मांड महापुराण खंड-2 के अनुसार एक समय परशुराम जी भगवान शिव की घोर तपस्या कर रहे थे और उन्हीं दिनों कई शक्तिशाली दैत्यों ने मिलकर इंद्र सहित समस्त देवों को पराजित कर उनको उनके लोको से निकाल दिया था। तब वे समस्त देव भगवान शिव से सहायता मांगने आए।
शिव जी ने इंद्र से कहा हिमालय के दक्षिण क्षेत्र में राम नाम के ऋषि मेरी तपस्या कर रहे हैं उन्हें मेरे पास लेकर आओ इन्द्र ने ऐसा ही किया जब परशुराम जी ने सुना की स्वयं शिव जी ने उन्हें बुलाया है वह तुरंत वहां उपस्थित हुए और उन्हें प्रणाम किया।
तब शिवजी ने देवताओं की पीड़ा परशुराम जी को कह सुनाई और बोले अब तुम मेरे कार्य को सिद्ध करो और उन सभी दैत्यों को मार डालो तब परशुराम जी बोले यदि शंकराचार्य और अन्य देवों के लिए अशुरो को मारना असंभव है तो वे अकेले मेरे द्वारा कैसे मारे जा सकते हैं मैं तो अस्त्र-शस्त्र में भी अनभिज्ञ हूँ मैं युद्ध कला में भी विशेषज्ञ नहीं हूं। मैं देवों के समस्त शत्रु को कैसे मार सकता हूं। वह भी बिना किसी आयुद्ध के।
इस प्रकार उनके द्वारा कहे जाने पर भगवान शिव ने दिव्य प्रक्षेपास्त्र परशुराम जी को दे दिए और इनके साथ ही अपना एक अति शक्तिशाली फरसा भी परशुराम जी को दिया भगवान शिव बोले मेरी कृपा से हे भद्र अब आप में पर्याप्त शक्ति है जिससे आप देवों के सभी शत्रु को मार सकते हैं और बाद में इसी वजह से उन्होंने उन सभी दैत्यों का संहार कर दिया।
परशुराम और कार्तवीर्यार्जुन का युद्ध | भगवान परशुराम ने क्षत्रियों को क्यों मारा ?
परशुराम जी ने हैहय वंश के अधिपति कार्तवीर्यार्जुन का वध किया था कार्तवीर्य ने भगवान नारायण के अंशावतार दत्तात्रेय जी को प्रसन्न कर लिया और उनसे 1000 भुजाये और कोई भी शत्रु युद्ध में उन को पराजित ना कर सके यह वरदान प्राप्त कर लिया था। जिसके चलते वह अभिमानी हो गया था।
एक दिन सहस्त्रबाहु अर्जुन शिकार खेलने के लिए बड़े घोर जंगल में निकल गया और जमदग्नि मुनि के आश्रम पर जा पहुंचा उनके स्वागत सत्कार से काफी प्रसन्न हुए, और देखा कि इसका कारण थी कामधेनु गाय कार्तवीर्यार्जुन जाते समय कामधेनु गाय को बलपूर्वक ले गए।
जब परशुराम जी आश्रम में आए और उसकी दुष्टता का वृत्तांत सुनकर वे तिलमिला उठे। वे अपना भयंकर फर्सा, तरकश, ढाल और धनुष लेकर बड़े बेग से उसके पीछे दौड़े और कार्तवीर्यार्जुन से युद्ध करने के लिए उन को ललकारा फिर परशुराम जी ने कार्तवीर्यार्जुन की हजार भुजाओं को काट के उसका वध कर दिया।
इसके बाद इसका बदला लेने कार्तवीर्यार्जुन के पुत्रों ने परशुराम जी की अनुपस्थिति में उनकी माता और पिता जमदग्नि ऋषि का वध कर दिया इससे और क्रोधित होकर उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वह हैहय वंशी क्षत्रियो को सारी पृथ्वी से समाप्त कर देंगे और उन्होंने किया भी।
उन्होंने कुल 21 बार हैहय वंशी क्षत्रियो का विनाश किया लेकिन वे हर युद्ध में केवल गर्भवती महिलाओं को ही छोड़ते थे। इस समय तक वे सारी पृथ्वी पर विजय पा चुके थे। बाद में वे सब साम्राज्य ऋषि कश्यप को दे कर स्वयं महेंद्र पर्वत में चले गए थे।
रामायण काल में परशुराम की भूमिका
रामायण काल में जब प्रभु राम ने शिव जी का वो धनुष तोड़ डाला था तब क्रोध में भरे हुए परशुराम जी वहां पहुंचे और उन्होंने श्री राम को चुनौती दी थी। वहां प्रभु राम ने अपने वृष्णु धनुष से अचूक वैष्णवास्त्र का आह्वान किया और इसे परशुराम जी की ओर लक्षित कर दिया वहां परशुराम जी को भगवान राम की शक्ति का एहसास हुआ और स्वयं ही प्रभु राम के आगे उन्होंने समर्पण कर दिया। श्री राम ने परशुराम जी की संपूर्ण तपस्वी योग्यता भंग कर दी थी और उनसे विष्णु तत्व भी ले लिया था इसके उपरांत वे श्री राम की आज्ञा ले कर महेंद्र पर्वत पर पुनः तपस्या करने के लिए चले गए थे।
महाभारत काल में परशुराम की भूमिका
परशुराम जी ने महाभारत में 3 महारथियों को शिक्षा दी थी जिनका नाम था पितामह भीष्म,गुरु द्रोणाचार्य और सूर्यपुत्र कर्ण को। कर्ण को उन्होंने शिक्षा ग्रहण करने के लिए झूठ बोलने पर श्राप भी दिया था।
भीष्म और परशुराम का युद्ध
परशुराम जी का भीष्म जी के साथ प्रलयंकारी युद्ध हुआ था इन दोनों में हुए महासंग्राम का कारण था भीष्म जी द्वारा आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने की प्रतिज्ञा और वही परशुराम जी एक महिला के सम्मान के लिए लड़ रहे थे।पराजय को स्वीकार करना इन दोनों के लिए असंभव सा हो गया था। परशुराम जी भीष्म जी पर हावी हो गए थे और उनको रथ पर ही गिरा दिया था।
तब गंगा और वसु भीष्म जी के मदद के लिए आए थे और उन्होंने भीष्म जी को परस्वापन अस्त्र का स्मरण कराया था। परशुराम जी ने उस समय अपने पूर्वजों के अनुरोध पर लड़ाई से हटने का निर्णय किया था और उन्होंने स्वयं खुद को पराजित माना था क्योंकि उनके पास परस्वापन अस्त्र का कोई उत्तर नहीं था यह युद्ध 23 दिन तक चला था।
कलयुग में परशुराम जी की भूमिका
परशुराम जी को चिरंजीवी (अमर) माना गया है। महादेव द्वारा उन्हें इच्छामृत्यु का आशीर्वाद मिला है।
कल्कि पुराण के अनुसार वे ही भगवान विष्णु के 10वें अवतार भगवान कल्कि के गुरु के रूप में उपस्थित होंगे और उन्हें युद्ध की शिक्षा देंगे। वे ही कल्कि को भगवान शिव की तपस्या करके उनसे दिव्यास्त्र को प्राप्त करने की प्रेरणा देंगे।
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